पुत्रवधू और उनके अधिकार !

हाल ही में कुछ समय पहले, एक पति को उसकी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराते हुए भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि, ‘एक पुत्रवधू के साथ परिवार के सदस्य की तरह व्यवहार किया जाना चाहिये न कि नौकरानी की तरह’ और उसको किसी भी हालात में ‘उसके वैवाहिक घर से बाहर नहीं निकाला जा सकता है।’

कभी-कभी पति, ससुराल पक्ष और रिश्तेदारों द्वारा बहू के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है वह समाज में भावनात्मक स्तब्धता की भावना पैदा करता है।

हमें देश की न्यायिक प्रणाली को धन्यवाद देना चाहिये जिसमे पुत्रवधू के हितों की रक्षा के लिये अनेक कानून मौजूद हैं। यह कानून किसी बहू पर होने वाले अत्याचारों को तो नहीं रोक सकते किन्तु पीड़िताओं को उत्पीड़न का डटकर मुकाबला करने में सक्षम अवश्य बनाते हैं। संभवत: हमारे संविधान निर्माता सामाजिक असमानताओं के कारण सदियों से हो रहे महिला उत्पीड़न की व्यथा को समझते थे और इसके चलते ही पुत्रवधू हितों के लिये कानून स्वीकृत किये गये।

यही कारण है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 (3) एक वधू के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई करने के लिए राज्य को सक्षम बनाता है। वास्तव में, भारत का संविधान उन बहुत कम दस्तावेजों में से एक है जहां लिंग समानता इतनी अच्छी तरह से ध्यान रखा गया है।

यह कुछ महत्वपूर्ण पुत्रवधू अधिकार हैं जिन्हें प्रत्येक विवाहित महिला को जानना चाहिए:

#1. स्त्रीधन

हिंदू कानून के अनुसार, विवाह से पहले होने वाले विवाह समारोह (जैसे गोद भराई, बरात, मुंह दिखाई) और बच्चे के जन्म के दौरान जो भी एक महिला प्राप्त करती है (जिसमें सभी चल, अचल संपत्ति, उपहार आदि शामिल हैं) स्त्रीधन कहलाता है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि स्त्रीधन पर एक महिला का पूर्ण अधिकार होता है और स्त्रीधन किसी भी दशा में किसी और को नहीं दिया जा सकता। अपने पति से अलग होने के बाद भी महिला स्त्रीधन पर अपना अधिकार जता सकती है।

यदि मांगे जाने पर भी महिला को स्त्रीधन नहीं दिया जाये तो यह कानूनन अपराध है और घरेलू हिंसा के दायरे में आता है। ऐसा होने पर महिला अपने पति और ससुराल पक्ष के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा सकती है। यदि कोई सास अपनी पुत्रवधु का स्त्रीधन अपने पास रख लेती है और वह बिना कोई वसीयत किये मर जाती है। ऐसी स्थिति में भी उसके पुत्र यानी महिला के पति या परिवार के किसी अन्य सदस्य के बजाये स्त्रीधन पर काननून उसकी पुत्रवधू का ही अधिकार होता है। ऐसे हालातों का मुकाबला करने के लिये एक महिला को निम्नलिखित सावधानियां अवश्य बरतनी चाहियें:

stridhan पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने महिला को मिलने वाली गुजारा भत्ते की समय सीमा तय कर दी है जो पुरुष की कमाई के 25 प्रतिशत से ज्यादा नही हो सकती है। इसके अलावा इस धन में आपको टैक्स भी लगेगा

#2. घरेलू हिंसा

प्रत्येक महिला के पास पति या उसके परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा की गयी घरेलू हिंसा के आधार पर तलाक लेने के अलावा उसके पास कार्यकारी अधिकारी, मजिस्ट्रेट के माध्यम से ‘शांति बनाए रखने का बंधन’ या ‘अच्छे व्यवहार का बंधन’ का विकल्प भी मौजूद होता है। इस तरह के मामलों में पति को प्रतिभूतिया/सिक्योरिटी (धन या संपति) जमा कराने के लिये भी कहा जा सकता है जिन्हें पति द्वारा फिर से पत्नी के साथ हिंसापूर्ण व्यवहार जारी रखे जाने पर जब्त भी किया जा सकता है। शारीरिक, यौन, मानसिक, मौखिक और भावनात्मक हिंसा के निम्नलिखित कृत्य घरेलू हिंसा के दायरे में आते हैं:

#3. वैवाहिक घर (विवाह के बाद घर)

हिंदू दत्तक ग्रहण और सरंक्षण अधिनियम, 1956  के अनुसार, एक हिंदू पत्नी को अपने वैवाहिक घर में रहने का अधिकार है, भले ही वह उसका खुद का न हो। वैवाहिक घर से हमारा मतलब वह संपति है जिसका मालिक उसका पति होता है या फिर जिसमें वह रहता है। साथ या अलग रहने के बावजूद भी पति पर अपनी पत्नी और बच्चों को घर में आश्रय देने का दायित्व होता है, चाहे वह किराये का हो या उसका अपना।

ऐसे मामले भी सामने आये हैं जब पति और पत्नी के बीच रिश्ते खराब हो जाने के बाद पति किराये पर लिया हुआ या कंपनी द्वारा दिया गया मकान छोड़ कर चला जाता है। लेकिन ऐसा कदम उठाने के बाद भी पति अपनी पत्नी और बच्चों को बुनियादी रखरखाव प्रदान करने की बाध्यता से मुक्त नहीं होता। रखरखाव में भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और चिकित्सा सेवा/उपचार और किसी अविवाहित बेटी के मामले में उसके विवाह के आयोजन में होने वाला उचित खर्च दिये जाने का प्रावधान शामिल हैं।

#4. पैतृक घर (अभिभावक का घर)

सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि कानूनी तौर पर एक पिता को अपनी मृत्यु के बाद परिवार के अन्य सदस्यों को वंचित करने की प्रक्रिया में अपनी शादीशुदा बेटी को सहकारी सोसायटी फ्लैट के मालिक होने के लिए नामांकित करने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा है कि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि नियमों के प्रावधानों के अनुरूप जिसमें एक सहकारी समिति का सदस्य किसी व्यक्ति को नामांकित करता है, उस सदस्य की मृत्यु के बाद उसके सभी शेयर या हितों को सहकारी समिति द्वारा नामांकित व्यक्ति को स्थानांतरित करना अनिवार्य है। विरासत या उत्तराधिकार के कारण दूसरों का अधिकार एक दासवत् (बिना महत्व का या अधीनस्थ) अधिकार है।

इसके अलावा, यदि पिता द्वारा कोई वसीयत नहीं छोड़ी गयी है तो पिता की संपति में बेटी का पुत्रों के समान अधिकार होता है। बेटी का मां की संपति में भी हिस्सा होता है।

मैं गंभीरतापूर्वक आशा और प्रार्थना करती हूं कि मेरी किसी भी साथी महिला को ऐसी परिस्थितियों से गुजरने और ऐसे प्रावधानों का उपयोग करने के लिये मजबूर न होना पड़े, किन्तु इन विषयों पर आपकी जानकारी शायद किसी दिन किसी अन्य को अनुविधाजनक स्थिति में पड़ने से रोकने में मदद कर सकती है और ऐसा होने पर हालातों का मुकाबला करने का मार्ग दिखा सकती है।


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