क्या आज भी हमारे देश में गोरा होना ही सुंदरता है ?

मैं यहां गोरा बनने के लिये की जाने वाली खोज के बारे में बात नहीं कर रहा हूं। मेरा मतलब है कि भारत में गोरा शब्द का प्रयोग हम सिर्फ त्वचा का रंग हल्का बताने के लिये ही करें।  

बुद्धिमानी की दौड़ में भारत एक अद्वितीय देश है। हम न तो सफेद हैं और न ही काले हैं। हम पूरी तरह से भूरे रंग के भी नहीं हैं। बेहद गोरा (एक विशेष शब्द जिसका उपयोग केवल भारत में आपकी त्वचा के रंग का वर्णन करने के लिए किया जाता है) से गेहुंआ (भारत में इस्तेमाल किया जाने वाला एक अन्य शब्द) से काला होने तक हमारी त्वचा के रंगों में विधिधता और विजातीयता समाज में गहरे भेदभाव और पूर्वाग्रह पैदा करती है। खासतौर पर महिलाओं को इस भेदभाव का पूरी जिंदगी सामना करना पड़ता है। गोरेपन को लेकर भारतीय समाज की सोच को जानने के लिये आपको सिर्फ किसी भी अखबार के के वैवाहिक अनुभाग (मैट्रोमोनियल सेक्शन) में वधू चाहिये विज्ञापनों को पढ़ना चाहिये। आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि लगभग हर माता-पिता अपने लिये गोरी बहू की चाह रखते हैं। और जैसा कि गोरा बनाने की क्रीमों के विज्ञापनों में दिखाया जाता है कि जीवन में सफलता पाने के लिये गोरा होना जरूरी है, यही धारणा हमारे मन में बैठ चुकी है।

आपको गोरा बनाने के सपने दिखाने वाले ‘फेयरनेस क्रीम’ के विज्ञापनों का मूल यह है कि आप जैसा दिखते हैं वैसा दिखना स्वीकार नहीं करते और टैलकम पाउडर और फेयरनेस क्रीम लगाये बिना दुनिया से मेलजोल करते हुए अच्छा महसूस नहीं करते। यह सोच आपके खुद को स्वीकार न कर पाने और आत्मसम्मान में गिरावट को प्रदर्शित करता है। यह नुकसान एक ही दिन में नहीं हुआ है। भारत में लड़कियों के लिये बचपन से लेकर जवान होने तक दिन-ब-दिन यह नुकसान होता रहा है। हम बच्चों के साथ जैसा बरताव करते हैं उसका असर उनके व्यस्क हो जाने के बाद उनके व्यवहार से दिखाई देता है।  

यहां तक की एक नवजात शिशु को भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ता है। नवजात शिशु को देखने के लिये आने वाली बुजुर्ग महिलाएं बच्चें के चेहरे को ध्यान से देखती हैं और बच्ची के गोरा होने या गोरा न होने के आधार पर उसके माता-पिता को भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली बताती हैं। खासकर उत्तर भारत के गांवों और छोटे शहरों में ऐसा होता है। लड़कियों का रंग काला हो जाने के डर से दादी मां या मां कई बार उन्हें धूप में खेलने से रोकती हैं। बच्चियों की तुलना उनकी त्वचा के रंग के आधार पर की जाती है, और जो बच्चियां गोरी हैं और इसलिये सुंदर हैं कि तारीफ की जाती है।  उन बच्चों की प्रशंसा करते हैं जो गोरे हैं और इसलिये सुंदर हैं। गोरेपन पाने की तलाश करना कोई नयी बात नहीं है। कुछ पुरानी कहावतें हैं जो गोरी त्वचा पाने के लिये हमारे मन में जगह बना चुकी तीव्र इच्छा का उदाहरण हैं।

इसका एक उदाहरण यह कहावत है  एक गोरापन चेहरे की 10 कमियों को छिपा सकता है। लिंग में अंतर के साथ ही रंग भेदभाव भी बदल जाता है। जब एक लड़के का रंग काला होता है तो कहा जाता है, एक आदमी उतना ही सुंदर होता है जैसा कि वह करता है, लेकिन एक लड़की के लिये वह कैसा दिखती है ही सबकुछ होता है। ‘सुंदरता सतही होती है और मुखपृष्ठ (कवर) को देखकर किताब का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता ’ जैसे मुहावरों का प्रयोग लड़कियोंं के लिये नहीं किया जाता। वास्तव में लड़कियों का आंकलन उनके शारीरिक दिखावे से किया जाता है जिसमे गोरी त्वचा को किसी भी अन्य विशेषता से अधिक  महत्व दिया जाता है। भारत में त्वचा का रंग गोरा होना सुंदरता का पर्याय बन गया है क्योंकि यहां गोरेपन का अधिक महत्व दिया जाता है।

ऐसा नहीं है कि जो लोग गोरी त्वचा लेकर पैदा होते हैं वह गोरा होने की इच्छा नहीं रखते। बल्कि वह और अधिक गोरा होना चाहते हैं। गोरेपन की तलाश कभी पूर्ण नहीं होती। कई गोरी लड़कियां भी गोरा बनाने के उत्पादों का प्रयोग करती हैं। एक बार मैंने एक युवा वधू के बारे में कहते हुए सुना था कि वह इतनी गोरी थी कि अंधेरे कमरे में भी बल्ब की तरह चमकती थी। क्या आप गोरेपन को लेकर भारतीय समाज में व्याप्त जुनून की कल्पना कर सकते हैं? इसका दुष्प्रभाव युवा भारतीय लड़कियों की मानसिकता पर पड़ता है और वह सुंदरता और आत्मछवि को लेकर अपनी आदर्श प्रणाली खो देती हैं। जब उनसे कहा जाता है कि वह पर्याप्त रूप से गोरी नहीं हैं तो उनमे हमेशा के लिये आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। इस दबाव में आकर वह जैसी दिखती हैं वैसा होना स्वीकार नहीं कर पाती। वह उनके कौशल, ज्ञान को बढ़ाने और जीवन पर वास्तव में प्रभाव डालने वाली बातों पर ध्यान लगाने की बजाये गोरा बनाने वाले उत्पादों का प्रयोग कर अपनी त्वचा के रंग को छिपाने में लग जाती हैं।

मैं उन मशहूर हस्तियों का सम्मान करता हूं जिन्होंने गोरा बनाने वाले उत्पादों का विज्ञापन करने से इनकार किया है। हर शिक्षित व्यक्ति जानता है कि आप लाख कोशिशों के बावजूद अपनी त्वचा के रंग को बदल नहीं सकते। आपकी त्वचा का रंग आपके जीन में कूटबद्ध (कोडिड) होता है। यामी गौतम और आलिया भट्ट जैसी शख्सियतें भी त्वचा को गोरा बनाने वाली क्रीम के विज्ञापन करती हैं। जबकि यह महिलाएं इन उत्पादों का प्रयोग कर के गोरी नहीं बनी हैं बल्कि उनके जन्म लेते समय भी उनकी त्वचा गोरी ही थी। यह बात वह अच्छी तरह से जानती हैं लेकिन इसके बावजूद वह ऐसे विज्ञापन करती हैं जो युवा मन को भ्रमित और गुमराह कर रहा है। वे इन उत्पादों का समर्थन ही नहीं कर रहीं बल्कि वह इस तथ्य को सही ठहरा रही हैं कि इस देश में गोरा पैदा होना आपको विशेष अधिकार देता है। और मेरे हिसाब से ऐसा करना उचित नहीं है।


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